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बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

वाह रे सचिन तूने कमाल कर दिया

बुधवार को ग्वालियर में सचिन ने वनडे मैन में 200 रन बनाकर साबित कर दिया है वह भारत ही नहीं दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाडी हैं। सचिन को बहुत-बहुत बधाई। सचिन को पूरी दुनिया से बधाईयों का तांता लगा हुआ है। राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री ने भी सचिन की इस कामयाबी पर उन्हें बधाई दी। मुझे लगता है हर व्रिᆬकेट प्रेमी सचिन की इस कामयाबी से अपने को किसी न किसी रुप में जोडना चाह रहा होगा। टीवी चैनलों पर सचिन के इस कामयाबी पर घंटों तक स्टूडियो में चर्चा होती रही। दुनिया भर के खिलाडियों ने सचिन को व्रिᆬकेट का किंग कहा। सचिन रमेश तेंदुलकर को प्रख्यात खिलाडी सुनील गावस्कर व कपिलदेव ने व्रिᆬकेट का महानतम बल्लेबाज कहा। सचिन 16 साल की उम्र से व्रिᆬकेट खेल रहे हैं। रिकार्ड के साथ रहना उनकी अदा है। वन डे मैच में तो सचिन ने सभी रिकार्ड अपने नाम कर रखे हैं। वन डे में सर्वाधिक शतक व सर्वाधिक रन बनाने के साथ ही सबसे ज्यादा मैन आफ द मैच व सर्वाधिक मैन आफ द सिरीज का खिताब भी सचिन के नाम दर्ज है। ग्वालियर का मैच शायद ही सचिन व उनके प्रशंसक कभी भूल पाएंगे। 147 गेंद में नाबाद 200 रन बनाने के लिए 25 चौके व 3 छक्के लगाये। विशेषज्ञ तो लोकप्रियता में फिल्मी दुनिया की हस्ती शाहरुख खान से भी सचिन को आगे बता रहे हैं। वास्तव में सचिन हैं ही ऐसे की कोई भी उनकी तारीफ किये नहीं रह सकता। मूर्धन्य पत्रकार स्व़ प्रभाष जोशी जी जीवित होते तो जनसत्ता में सचिन की इस कामयाबी पर पृथम पृष्ठ पर उनका विशेष लेख जरुर होता। व्रिᆬकेट प्रेमियों को सचिन की इस सफलता पर प्रभाष जी की टिप्पणी से महरुम रहना पडेगा। सचिन जितने महान बल्लेबाज हैं व्यक्तिगत तौर पर भी उतना ही सरल व्यक्तित्व है उनका। मेरी सचिन रमेश तेंदुलकर से एक बार लम्बी मुलाकात हुई। कानपुर में पाकिस्तान के साथ वन डे मैच के बाद सचिन व उनकी पूरी टीम मेरे साथ ही लखनऊ  आयी थी। सचिन के लखनऊ आने के लिए सहारा इण्डिया परिवार ने विशेष तौर पर सोनाटा गोल्ड कार भेजा था। लैण्डमार्क होटल से निकलने के बाद मैने उनसे उसी कार में बैठने का अनुरोध किया। सचिन ने कहा कि मैं अपने साथी खिलाडियों के साथ ही बस से ही चलूंगा। सचिन ने कहा वह बस में गेट के किनारे वाली पहली सीट पर किनारे बैठेगें। सचिन बेहद शालीन हैं और लोगों से बहुत कम बातचीत करते हैं। बस में बैठने के बाद उन्होंने कान में हेडफोन लगा लिया और आईपाड से गाना सुनने लगे। रास्ते में तमाम लोग सडक के किनारे खडे थे जो सचिन की एक झलक पाना चाहते थे। जहां कहीं भी भीड सचिन ने देखी खिडकी का शीशा थोडा हटाकर हाथ जरुर हिलाते। लखनऊ पहुंचने के बाद सहारा शहर में सचिन ने डिनर के दौरान ज्यादा समय अकेले में ही गुजारा। सबसे मिलने के बाद सचिन ने कहा कि उन्हें किनारे बैठना है। महेन्द्र सिंह धोनी ने उस समय सचिन के बारे में कहा था उन्हें अकेलापन अच्छा लगता है। ऐसा लगता है कि वे हर समय बल्लेबाजी की ट्रिक के बारे में ही चिन्तन करते रहते हैं। वाह रे सचिन तुम ऐसे ही खेलते रहो ।

कैसे-कैसे पत्रकार

 उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को पटना व दिल्ली के बाद पत्रकारों का गढ कहा जाता है। राजधानी होने की वजह से यहां पर पत्रकारों की एक बडी फौज है। तीन सौ से ज्यादा पत्रकारों को राज्य सरकार ने बाकायदे राज्य मुख्यालय की मान्यता दे रखी है। जिले स्तर पर भी करीब 50 पत्रकारों को मान्यता दी गयी है। प्रमुख दैनिक व साप्ताहिक समाचार पत्रों व टीवी चैनल के अलावा इस शहर में कितने समाचार पत्र महज कागजों में छप रहे हैं हो सकता है सूचना विभाग को भी इनके बारे में न पता हो। किसी को पत्रकार बनने के लिए कोई डिग्री की जरुरत नहीं है। जो चाहे वह आसानी एक समाचार पत्र का पंजीकरण कराकर खुद को सम्पादक घोषित कर ले। सरकार भी उसे ऐसा करने से नहीं रोक सकती है। पत्रकारों की बढती भीड से पूरी पत्रकार बिरादरी चिन्तित है। कहा जा रहा है कि इस भीड की वजह से पत्रकारों का समाज में स्तर गिर रहा है। पत्रकारों को लोग अब अच्छी नजर से नहीं देख रहे हैं, यह निहायत ही चिन्तनीय है। किसी सडक पर खडे होकर दस मिनट तक नजर दौडायें तो देखेंगे वहां से गुजरने वाली दस गाडियों में से एक पर प्रेस लिखा हुआ रहता है। अपराध की एक पत्रिका निकालने वाले एक सम्पादक ने कितनी गाडियों पर पत्रिका का नाम छपवा रखा है शायद उन्हें भी नहीं पता होगा। इसी तरह तमाम पत्रकार अपने नाते रिश्तेदारों व मित्रों की गाडियों पर प्रेस लिखवा दिये हैं ताकि पुलिस कहीं उन्हें न रोके। यदि कहीं पर पुलिस रोकने की कोशिश करती है तो पत्रकार का रौब अलग गांठते हैं। मेरे एक पत्रकार मित्र आसिफ की गाडी से हजरतगंज में एक गाडी से पिछले दिनों मामूली टक्कर हो गयी। आसिफ को उस प्रेस लिखी गाडी पर बैठा व्यक्ति पत्रकार का रौब गांठकर आधे घंटे से ज्यादा देर तक परेशान कियाा। बाद में जब असलियत खुली तो पता चला कि वह खुद नहीं बल्कि उसका कोई जानने वाले एक पत्रिका निकालते हैं। वुᆬछ छुटभैये फर्जी पत्रकार नामी गिरामी पत्रकारों का नाम लेकर लोगों को धमकाने से भी नहीं चूकते। एशियन ऐज की विशेष संवाददाता आमता वर्मा के साथ घटी घटना महज एक बानगी है। एक पत्रकार ने एचसीएल कम्पनी की पत्रकार वार्ता में अपने को एशियन ऐज का पत्रकार बता दिया। यही नहीं एक एक व्यक्ति अपने को एशियन ऐज का पत्रकार बताकर इसी शहर में एक मकान पर कब्जा कर लिया था। बाद में इसकी शिकायत एडीजी कानून व्यवस्था बृजलाल से की गयी तब मामला सुलटा। इस तरह की एक घटना तो मेरे साथ भी घटी। मेरे पत्रकार मिश्र श्रीधर जी एक बार कानपुर से लौट रहे थे। चारबाग स्टेशन पर उन्होंने एक व्यक्ति की स्वूᆬटर से लिपत्ट ली। स्वूᆬटर वाले व्यक्ति ने अपने को राष्ट्रीय सहारा का पत्रकार देवकी नन्दन मिश्र बताया। चूंकि श्रीधर जी मुझे जानते थे इस वजह से चौंक गये। हिन्दुस्तान टाइम्स के ब्यूरो प्रमुख हसन जी एक मंत्रीजी से मिलने गये। वहां मंत्री जी ने बताया कि आपसे पहले हमारी बात हो चुकी है। यह सुनकर हसन साहब चौंक गये उन्होंने मंत्री जी से कहा कि हम तो आपसे पहली बार मिल रहे हैं कभी बात भी नहीं हुई। पता चला कि कोई व्यक्ति मंत्री जी हिन्दुस्तान टाइम्स का हसन बनकर कई बार बात कर चुका था। दरअसल इन फर्जी पत्रकारों की बाढ आने के लिए वुᆬछ हद तक जिम्मेदार नामी गिरामी पत्रकार व शासन सत्ता में बैठे वुᆬछ आधकारी व नेता हैं। एक महिला जो एक समय में एक राजनीतिक पार्टी में थी इस समय अक्सर एनेक्सी में आती जाती है। वह पत्रकार नहीं है बावजूद इसके उसका पास बना हुआ है। वह वुᆬछ आईएएस अफसरों के दपत्तर में अक्सर देखी जा सकती हैं। अपने को पत्रकार साबित करने के लिए वह कभी कभार मीडिया सेन्टर के भी चक्कर लगा लेती हैं। पत्रकारों की प्रमुख संस्था प्रेस क्लब की हालत इन दिनों अजीब सी हो गयी है। छोटे-मोटे कार्यव्रᆬम भी वहां छुटभैये प्रायोजकों के भरोसे आयोजित होते हैं। यह हालत तब है जब प्रेस क्लब के पास अपना अच्छा खासा फण्ड भी है। हाल में क्लब में तहरी भोज का आायोजन किसी संगठन के सहयोग से सम्पन्न हुआ। पत्रकारों में इसे लेकर बेहद चिन्ता है। मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति के पूर्व अध्यक्ष व बीबीसी के विशेष संवाददाता रामदत्त त्रिपाठी ने जब मुझसे इस घटना का जिव्रᆬ किया तो वे बेहद दुखी थे। मीडिया सेन्टर में मौजूद अन्य पत्रकार भी इस पर बेहद चिन्तित दिखे। ऐसी ढेर सारी घटनाएं हैं जिसे लेकर पत्रकार बिरादरी चिन्तित है। सब चाहते हैं कि कोई ऐसा रास्ता निकले जिससे पत्रकारों की जगह-जगह होने वाली जगहंसाई पर रोक लगायी जा सके। मुझे लगता है कि जल्द ही पत्रकार एक मंच पर आकर इस तरह के फर्जीवाडे पर रोक लगाने की कोशिश करेंगे तभी उनकी साख बच सकेगी।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

वाकई लडकियां बहुत स्मार्ट होती हैं

राहुल गांधी पिछले दिनों जब बिहार के एक वुमेन्स कालेज में गये थे तो उनकी सहज सी टिप्पणी लडकियों के बारे में आयी थी। लडकियां बहुत स्मार्ट होती हैं। उनके कहने का मतलब साफ था लडकियां स्मार्ट तो दिखती ही हैं बेहद चालाक भी होती हैं। उनकी टिप्पणी अनायास नहीं थी। यह सच कि लडकियां बेहद स्मार्ट होती हैं वे कब कहां किसको उलझा दें नहीं कहा जा सकता है। चाहे वह उनके परिवार का कोइ सदस्य यहां तक पिता, भाई व पति ही क्यों न हो। बाराबंकी जिले के सियाराम रावत तो अब यही कहते हैं कि अगले जनम मोहे बिटिया न दीजो। बिटिया (लडकी) जिसे समाज मां, बहन, पत्नी व बेटी के साथ ही लक्ष्मी कहा जाता है ने अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए अपने पिता पर ही शारीरिक शोषण का आरोप लगा डाला। सियाराम की दो बेटियों ने जब पुलिस के सामने उपस्थित होकर अपने पिता को खुद का बलात्कारी कहा तो पुलिस का उसके खिलाफ कार्रवाई करना लाजिमी था। पुलिस ने सियाराम को गिरपत्तार कर लिया लेकिन जब जांच में असली भेद खुला तो सबके पैरों तले जमीन खिसक गयी। वास्तव में सियाराम बलात्कारी नहीं था बल्कि उसने अपनी बेटियों की स्वच्छन्दता पर रोक लगाने की कोशिश की थी। अपने प्रेमियों के साथ खुलेआम गांव मोहल्ले में उनका घुमना सियाराम को पसन्द नहीं आया। तब उसकी दोनों बेटियों ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर पिता पर ही बलात्कार का झूठा आरोप मढने की नापाक योजना बना डाली। जब तक भेद खुलता सियाराम कलयुगी पिता बन चुका था। लखनऊ में तीन वर्ष पूर्व भी पिता द्वारा अपनी बेटी के साथ वर्षों तक बलात्कार किये जाने की घटना प्रकाश में आयी थी। उसमें भी कितनी सत्यता रही होगी इस समय नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना तो साफ है कि लडकियां कब कहां किसको फंसा दें कहा नहीं जा सकता है। मेरे एक मित्र को इसी लखनऊ शहर की एक लडकी ने दोस्ती के नाम पर खूब एक्सप्लायट किया। जब उन्होंने मेरे से इस घटना का जिव्रᆬ किया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मेरे एक परीचित जो दिल्ली में एक कम्पनी में आधकारी हैं की पत्नी ने शादी के एक साल के भीतर सात जन्मों के इस बन्धन को तोडने का ऐलान कर दिया। लडकी इसी लखनऊ शहर की है। पत्नी ने पहले उनकी पिटाई की बाद में उल्टे उन्हीं के खिलाफ दहेज उत्पीडन का मुकदमा भी दर्ज करा दिया। अब वे बेचारे पुलिस का चक्कर काट रहे हैं। मेरे कहने का यह कत्तई मतलब नहीं है कि सभी लडकियां इस तरह की ही होती हैं लेकिन समाज में ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ रही है जो ठीक नहीं है। लोगों को इस सामाजिक बुराई से जागरुक करने की जरुरत हैं। इसके साथ ही पुलिस को भी इस तरह की शिकायतों पर बगैर गहराई से जांच किये कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। बाराबंकी पुलिस ने यदि गहराई से पूरे मामले की जांच कर ली होती तो शायद ही सियाराम समाज के सामने अपनी ही बेटियों जिनकी वह भलाई चाहता था का बलात्कारी नहीं कहलाया होता।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

आतंकवाद के खिलाफ खडे हों आम लोग

पुणे में आतंकवादी हमले के बाद एक बार फिर देश की सुरक्षा एजेन्सियों की कार्यप्रणाली पर मीडिया ने ऊंगली उठाना तेज कर दिया है। हरबार की तरह इस बार इसे खुफिया एजेन्सियों की बडी चूक कहा जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि पुणे आतंकवादियों के निशाने पर था यह पहले पकडे गये आतंकवादियों ने खुलासा कर रखा था। अमरिका में पकडे गये खुंखार आतंकवादी हेडली का नाम भी लिया जा रहा है। हेडली ने दिल्ली के साथ ही पुणे व कानपुर को लश्कर के निशाने पर बताया था। यह ठीक बात है कि हेडली ने इस बात का खुलासा कर रखा था कि पुणे में ओशो आश्रम व जर्मन सेंटर आतंकियों की हिटलिस्ट में था लेकिन यह हमले कब होंगे इस बारे में तो किसी को नहीं पता था। पुणे के कमिश्नर का बयान आया कि वह पूरी तरह से चौकस थे लेकिन इसी बीच आतंकवादी अपना काम कर गये। इस हमले को एक सप्ताह गुजरने वाले हैं लेकिन अभी तक आतंकवादी गुट के नाम का खुलासा पुलिस नहीं कर पायी है। पुलिस का दावा है कि उसे अहम सुराग हाथ लगे हैं। किसी घटना के बाद उसके खुलासे की जिम्मेदारी तो निश्चित ही पुलिस व खुफिया एजन्सियों की है लेकिन घटना से पूर्व चौकसी का जिम्मा सिर्पᆬ पुलिस का ही नहीं है। आम आदमी को भी चौकन्ना रहने की जरुरत है। हम लोग अगर थोडी सी सावधानी बरतें तो शायद बडी आतंकवादी वारदात को टाला जा सकता है। शायद पुणे की घटना को भी हम टाल सकते थे। पुणे में जिस तरह से आतंकवादी रेस्तरां में आये और बम से भरा बैग रखकर चले गये और देर तक किसी की भी निगाह उस पर नहीं गयी। ऐसा नहीं है निगाह जरुर गयी होगी लेकिन किसी ने उस बैग पर संदेह जताने की कोशिश नहीं की। बैग को देखने वाले हर शख्स ने यह समझकर कि यह सामने वाले का होगा चुप रह गये होंगे। किसी ने भी यदि उस बैग के बारे में पूछताछ कर ली होती तो शायद इतनी बडी घटना से बचा जा सकता था। जब कोइ उस बैग का वारिस नहीं मिलता तो फौरन पुलिस को सूचना दी जाती। यह भी हो सकता था कि पुलिस के आने से पहले बम फट जाता लेकिन इतनी जान तो नहीं ही जाती। लेकिन समय से सूचना मिलने पर यह भी हो सकता था कि बम फटने से पहले ही पुलिस पहुंचकर उसे डिपत्यूज कर देती। यह तभी सम्भव हो पाता जब कोइ जागरुक नागरिक उस लावारिश बैग पर संदेह व्यक्त करता। रेलवे स्टेशन पर अक्सर एनाउंस होता रहता है कि किसी लावारिश वस्तु या सामान का न छुएं, कहीं दिखे तो फौरन पुलिस को सूचना दें। कभी कभार लोग लावारिश चीज देखकर पुलिस को सूचना भी देते हैं। मुझे लगता है कि जिस तेजी के साथ देश में आतंकवाद रुपी सांप अपना फन पैᆬला रहा है उससे मुकाबला अकेले पुलिस व सुरक्षा एजेन्सियां नहीं कर सकती हैं। अपने देश में इतना पुलिस बल और हथियार नहीं मौजूद है जिसे एक-एक व्यक्ति की सुरक्षा में तैनात कर दिय जाय। ऐसे में देश की सवा सौ करोड की आबादी को खुद इस आतंकवाद से मुकाबले के लिए खडा होना पडेगा जेहाद से टक्कर लेनी होगी। अपने आसपास की वस्तु व रहने वाले व्यक्ति पर नजर रखनी होगी, सार्वजनिक स्थान पर विशेषकर। ऐसे मामले प्रकाश में खूब आ रहे हैं कि पैसों की लालच में अपने देश के वुᆬछ लोग बहकावे में आकर आतंकवादियों को पनाह दे रहे हैं। आतंकी की पौध को लहलहाने में उनकी मदद कर रहे हैं। यह निहायत ही गम्भीर बात है। हमें ऐसे पनाहगारों से भी सावधान रहन्ो की जरुरत है। उनकी भी पहचान करके उनके बारे में पुलिस को जानकारी देने की जरुरत है। आतंकवादियों के हौसलों को पुलिस नहीं बल्कि आम लोग पस्त कर सकते हैं। पुलिस को हर मोहल्ले में रहने वालों की जानकारी नहीं होती है लेकिन पडोसी को अपने बगल में रहने वाले के बारे में सबवुᆬछ पता होता है। ऐसे संदिग्ध व्यक्ति पर नजर रखने के लिए देश के प्रत्येक नागरिक को पुलिस की भूमिका अदा करनी होगी तभी शायद आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है। मीडिया की भी भूमिका इसमें बेहद महत्वपूर्ण है। वजह मीडिया पर लोगों का पूरा भरोसा है। सरकार भले ही अपनी आलोचना से नाराज होकर मीडिया पर आरोप लगाने लगे लेकिन आम लोग आज भी सर्वाधिक भरोसा मीडिया पर करते हैं क्योंकि मीडिया हर सुखदुख में आम आदमी के साथ खडा रहता है। वैसे तो मीडिया 24 घंटे जागरुक रहता है लेकिन उसे आम लोगों में आतंकवाद से बचाव के लिए अपने इस विश्वास को हथियार बनाना चाहिए। मीडिया ने आतंकवाद के खिलाफ आम लोगों को जागरुक कर लिया तो आतंकवादी को एक दिन भी देश में पनाह नहीं मिल पाएगी। फिर आतंकवादी हमले तो दूर की कौडी होंगे। जय हिन्द जय आम लोग।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

आखिर कब एकजुट होंगे यूपी के पत्रकार

देश के सबसे बडे सूबे उत्तर प्रदेश की राजधानी के पत्रकारों के बीच इन दिनों जबरदस्त मारकाट (आरोप प्रत्यारो) मची हुइ है। पत्रकार पूरी तरह से गुटों में बंट गये हैं। दो गुट तो साफ तौर से नजर आ रहा है लेकिन इससे आधक गुटों से इनकार नहीं किया जा सकता । यह शायद राजधानी में पहली बार देखने को मिल रहा है। वैसे तो उत्तर प्रदेश मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति के चुनाव के समय पत्रकार गुटों में बंटते हैं और चुनाव के बाद फिर सबएकजुट हो जाते हैं लेकिन पहली बार ऐसा दिख रहा है कि चुनााव खत्म होने के बाद भी पत्रकारों में जबरदस्त गुटबाजी है। पत्रकारों की इस गुटबाजी की चर्चा अफसर व राजनेता भी चटखारे लेकर कर रहे हैं। सूचना विभाग भी पत्रकारों की इस गुटबाजी का शिकार हो रहा है। किसी एक मुद््‌दे पर पत्रकार एकजुट नहीं हैं। यहां तक कि अभी हाल में पी 7 न्यूज चैनल के पत्रकार ज्ञानेन्द्र शुक्ल का एक खबर की बाइट को लेकर प्रदेश के ग्राम्य विकास मंत्री दद्दू प्रसाद से विवाद हो गया। हालात यहां तक खराब हो गये कि मारपीट की नौबत आ गयी। पत्रकारों का एक गुट वहां मौके पर पहुंचा और विवाद को शान्त कराया। कैबिनेट सचिव ने मीडिया सेन्टर में पत्रकारों के बीच आकर घटना के लिए खेद जताया तब जाकर किसी तरह पत्रकारों की इज्जत बची। इस घटना के बाद ही पत्रकारों का एक गुट ज्ञानेन्द्र की ही पूरे घटना में दोष दे रहा था। यह सबवुᆬछ किसी मीटिंग में नहीं बल्कि अलग-अलग चर्चा के दौरान ये सबवुᆬछ कहा गया। हो सकता है कि ज्ञानेन्द्र शुक्ल की कोइ गलती इस पूरे मामले में रही हो लेकिन मेरी राय में पत्रकारों को इसमें पूरी तरह से एकजुटता का परिचय देना चाहिए था। ऐसी चर्चा से भी बचना चाहिए था जिससे लगे कि पत्रकारों में किसी तरह की गुटबाजी है लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि राजधानी के पत्रकारों को क्या हो गया है जो आपस मं सिरपुᆬटैवल कर रहे हैं। किसी के बारे में किसी की व्यक्ति राय खराब हो सकती है लेकिन उसे मीडिया समाज से बाहर प्रदर्शित करना ठीक नहीं है। एक सांध्य समाचार पत्र ने वुᆬछेक पत्रकारों के खिलाफ ही आभयान चला रखा है। यह ठीक नहीं है। मेरी समझ से इससे पत्रकार बिरादरी ही बदनाम हो रही ह। मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति का चुनाव समाप्त हो गया जो पदाधिकारी चुन लिये गये उन्हें काम करने का पूरा मौका मिलना चाहिए। सबको उनका पूरा साथ देना चाहिए। कमेटी के पदाधिकारियों को भी सबको साथ लेकर चलना चाहिए। चुनाव के बाद समिति का विरोध करना ठीक नहीं है। वह भी ऐसी कमेटी का जिसके पास किसी तरह के वित्तीय आधकार नहीं है। कोइ प्रशासनिक आधकार नहीं है। चुनाव से पहले वरिष्ठ पत्रकार हेमन्त तिवारी व मेरे साथ भी एक दिलचस्प घटना घटी। उस घटना में भी कइ पत्रकार साथियों ने पुलिस की बजाय हमलोगों का विरोध किया था। यह विरोध के स्वर मेरी वजह से नहीं बल्कि हेमन्त तिवारी की वजह से पत्रकारों ने उठाये थे लेकिन यहां मैं यह बता दूं कि कोशिश होनी चाहिए कि हम सच के साथ खडे हों क्योकि पत्रकार समाज का दर्पण होता है। आज भी लोगों का पूरा भरोसा मीडिया और उसे चलाने वाले पत्रकारों पर है। ऐसे में पत्रकार यदि अपने बीच होने वाली घटनाओं पर सच जाने बगैर अपने किसी मीडियाकर्मी का विरोध या आलोचना करता है तो ठीक नहीं है।
देवकी नन्दन मिश्र
पत्रकार लखनऊ
9839203994