दस दिसंबर २०११ को आर टी आई पर एफ पी आर आई की तरफ से आयोजित वर्क शॉप में शामिल होने का मोका मिला. वर्क शॉप में आये एन जी ओ के लोग सूचना न मिलने से काफी परेशान थे. जैसे ही उनकी बोलने की बारी आयी तो उनका गुस्सा मंच पर बैठे राज्य सूचना आयोग के सूचना आयुक्त सुभाष चंद पाण्डेय की ओर हो चला. सबका कहना था सूचना आयोग कोर्ट की तरह हो गया है. यहाँ भी लोगो को तारीख दर तारीख ही मिलती है. उसी समय मुझे भी इक वाकया याद आ गया...मेरा भी इक मामला सूचना न मिलने पर सूचना आयोग तक पहुच गया. उस समय पता लगा कि सूचना आयुक्त लोग सरकार का खुलेआम फेवर लेते है. मै जब कोर्ट में हाजिर हुआ तो सूचना आयुक्त ने पुचा कि ये सूचना आप क्यूँ चाह रहे है.....इसका जवाब सुनने के बाद उन्होंने बोला ६ माह बाद की तारीख लगा दो. मैंने इस पर एतराज किया की जल्दी की तारिख लगवा कर मुझे सूचना दिलवा दीजिये तो वह बोले आप बहस कर रहे है...आपको बता दूँ की कोर्ट मै हाजिर था और सरकारी पछ गायब था...उसे चेतावनी नही दी गई और मेरी तारिख ६ माह बाद की लग रही थी. मेरे काफी बहस के बाद उन्होंने इक माह की तारीख तब दी जब उन्हें पता चल गया की मै पत्रकार हूँ. अगली तारीख से पहले ही मुझे सूचना मिल गई.....मै तो खुशनसीब था लेकिन वर्क शॉप में आये ढेर सारे लोग दो साल बाद भी सूचना आयोग में तारीख ही पा रहे है....सूचना नही दिला पा रहा है सूचना आयोग. और यही वजह है कि आयोग में शिकायतों का अम्बार लगता जा रहा है. सरकारी दफ्तरों से समय से सूचना मिल नही रही है जिस कारन लोगो को आयोग का दरवाजा खटकाना पड़ रहा है और वहन भी मिल रही है महज तारीख......ऐसे में इस कानून का क्या मतलब है.
आप सोच रहे होंगे कि इस पत्रकार को ब्लाग लिखने की जरुरत क्यों आन पडी, जब इसके पास लिखने के लिए पहले से एक प्रमुख समाचार पत्र व टेलीविजन है। आपकी सोच ठीक है लेकिन मेरा मानना है कि अपनी ढेर सारी भावनाएं व विचार हम उस समाचार पत्र में नहीं लिख सकते। इसके लिए इण्टरनेट ब्लाग मुझे बेहतर माध्यम लगा। मेरे ब्लाग पर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी साथ ही आपके सुझावों से इसमें बदलाव करने में यूपी के इस बन्दे को सहूलियत होगी।
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सोमवार, 12 दिसंबर 2011
गुरुवार, 8 दिसंबर 2011
अचानक क्यों फिर आम से खास हो गये ब्राह्मण
उत्तर प्रदेश की सियासत में एक बार फिर ब्राह्मण आम से खास हो गया है। एक जमाने में जिस ब्राह्मण बिरादरी के लोगों के पास सत्ता क़ी चाभी हुआ करती थी राजनीतिक दल अब उसे वोट बैंक की तरह देख रहे हैं। राजनीतिक दलों को लग रहा है कि भले ही ब्राह्मण सीधे तौर पर सत्ता से दूर हो गये हैं लेकिन सत्ता की चाबी उनके ही पास है और बगैर इनके समर्थन के कोई भी यूपी में सरकार नहीं बना सकता। २००७ के विधान सभा चुनाव में ब्राह्मणों ने बसपा की सरकार बनाकर इसे साबित भी कर दिया था। पिछले चुनाव के नतीजे देखकर सभी राजनीतिक दलों की निगाह प्रदेश के 12 फीसदी से ज्यादा ब्राह्मणों पर लगी हुई है। बसपा इसमें एक नम्बर पर है जो नहीं चाहती है कि ब्राह्मण उससे हटे । राजधानी लखनऊ में ब्राह्मणों की भीड़ जुटाकर बसपा ने यी संदेश देने की कोशिश की कि ब्राह्मण अभी भी उसी के पाले में है और आगे भी रहेगी।
अस्सी के दशक तक यूपी की सियासत में सत्ता की कमान अधिकांश समय तक ब्राह्मणों के हाथ में हुआ करती थी। राजनीतिक जानकारो का कहना है कि उस समय तक ब्राह्मण कांग्रेस के साथ ख़डा था। देश में मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद पिछ़दो की एकजुटता के साथ ही ब्राह्मण कांग्रेस से खिसकने लगा। भाजपा ने राममन्दिर की तान छेड़ी तो ब्राह्मण कांग्रेस से खिसक करके भाजपा के साथ खड़ा हो गया लेकिन भाजपा उन्हें लम्बे समय तक जोड़े रखने में सफल नहीं हो पायी. अटलबिहारी वाजपेयी के राजनीती में सक्रिय रहने तक ब्राह्मण भाजपा के साथ रहा उनके चुप बैठ जाने के साथ ही ब्राह्मण ने भाजपा का साथ छोड़ दिया. मुलायम सिंह के गुंडा राज से परेशान ब्राह्मण २००७ के चुनाव में बसपा के साथ खड़ा होकर उसकी सरकार बनवा दी. मतलब इक बार फिर ब्राह्मणों ने बता दिया क़ी सत्ता क़ी चाभी उन्ही के हाथ में है. यही वजह है क़ि आज २०१२ के दंगल में सभी दल ब्राह्मणों पर निगाह लगये हुए है. बसपा में ब्राह्मणों को वह सम्मान नही मिला जिसकी उन्हें उम्मीद थी. सब कुछ सतीश मिश्र के ही इर्द गिर्द घूमता रहा. इससे आम ब्राह्मणों में नाराजगी है. भाजपा और कांग्रेस ब्राह्मणों पर निगाह लगाये हुए है उन्हें लग रहा है क़ि १२ फीसदी ब्राह्मणों को अगर अपनी तरफ कर लिया गया तो सत्ता उनके हाथ में होगी लेकिन अभी भी हालत साफ नहीं हुए है क़ि ब्राह्मण किधर जायेंगे. भाजपा अपने तरीके से ब्राह्मणों को लुभाने क़ि कोशिश कर रही है कांग्रेस का अपना तरीका है. अब देखना होगा क़ि इस चुनाव में ब्राह्मण किधर जायेगा?
गुरुवार, 1 दिसंबर 2011
सरकारी जमीन पर कब्ज करने वाले मंत्री विधायकों का अब क्या होगा ?
उत्तर प्रदेश के इतिहास में शायद ये पहला मौका होगा जब लोकायुक्त की जांच में आये दिन प्रदेश का कोई विधायक या मंत्री फंस रहा हो । जांच में आरोप पुस्त होने के बाद लोकायुक्त की सिफारिश पर मंत्री को तो राज्य की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने हटा दिया लेकिन जिस आरोप में उन्हें हटाया जा रहा है है उस पर इतना छोटा दण्ड समझ से परे है। ऐसे मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किये जाने के साथ ही उनके कब्जे वाली जमीन खाली करायी जानी चाहिए । अगर किसी ने अपने या अपनी पत्नी के स्कूल में विधायक निधि दे दी है तो उससे वसूली होनी ही चाहिए लेकिन इस्तीफे के बाद मामला ठप सा पड़ता नज़र आ रहा है ।
लोकायुक्त तो किसी भी एक मामले में सिफारिश करने के बाद दूसरी जांच में व्यस्त हो जाते हैं और सरकारी मशीनरी इस वजह से चुप बैठ जाती है क्योंकि आरोपी मंत्री या विधायक है तो इसी सरकार के समर्थन में। ऐसे में किसी अफसर की इतनी हिम्मत कह्ना है जो कब्जे वाली जमीं को खली कराये. एक दिसम्बर को एक और मंत्री रतनलाल अरिवार को मंत्री पद की कुर्सी गंवानी पड़ी । जमीन पर कब्जे के मामले में ही दोषी पाये जाने पर लोकायुक्त ने उन्हें हटाने की सिफारिश की थी। इससे पहले राजेश त्रिपाठी, रंगनाथ मिश्र, बादशा सिंह व अवधपाल सिंह को जमीन पर कब्जे के साथ ही अन्य अनियमितताओं के आरोप में अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। मंत्री की कुर्सी तो इनकी चली गयी लेकिन जिन जमीनों पर इन महानुभावो ने कब्जे किये थे वह अभी भी उन्ही के कब्जे में है। यही नहीं अपने या अपने परिवार द्वारा संचालित जिन स्कूलों को विधायक निधि देना लोकायुक्त ने गलत माना उसे दोय गया धन सरकारी खजाने में अभी तक वापस नहीं किया गया है। यही नहीं इन विधायकों व मंत्रियों को भी बसपा ने अभी तक पार्टी से नहीं निकाला है। कईयों के टिकट भी बरकरार रखे गये हैं। ऐसे में महज कुर्सी पर से हटाने भर क्या इन्हें सजा मिल गयी?
लोकायुक्त के यहाँ जिस गति से शिकायतें आ रही हैं उससे लग रहा है कि विधायक व मंत्री बनने के साथ ही नेता लोग जनता की समस्याएं सुलझाने की बजाय जमीन व मकान पर कब्ज में लग जाते हैं। जब तक कुर्सी बरकरार रहती है अपने व अपने परिवार के लिए सम्पत्ति जुटाने पर ही पूरा जोर रहता है। सरकारी सम्पत्ति पर कब्जे के साथ ही गरीबों की जमीन भी कब्जियाने से पीछे नहीं हटाते । कब्जे के बाद गरीब मजबूरी में औने पौने दाम में उन्हें अपनी जमीन रजिस्ट्री कर देते हैं। आखिर अपने जनप्रतिनिधियों की इस तरह की हरकतों से प्रदेश किस तरह से तरक्की करेगा?
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