दिल्ली में विधान
सभा चुनाव को लेकर कई टीवी चैनलों पर जब कभी बहस चलती है तो उसे केजरीवाल वर्सेज
नरेंद्र मोदी बनाकर प्रस्तुत किया जाता है. पैनल में शामिल लोग भी इस पर ऐतराज कर
चुके है लेकिन फिर भी इस तरह की बहस जारी है. बहस को देखकर लगता है जैसे मोदी जी को
दिल्ली का सी एम बनना है. मैंने कभी केजरीवाल का समर्थन नही किया लेकिन अगर उनके दिल्ली
में उनके ४९ दिन की सरकार से केंद्र में चल रही मोदी जी की सरकार की तुलना की जाय
तो केजरीवाल की सरकार को हर कोई बेहतर बतायेगा. छ माह से ज्यादा मोदी जी की सरकार
को हो गया लेकिन क्या कोई कह सकता है कि देश में करेप्श्न तनिक भी कम हुआ. छ माह
बाद भी देश के लोकपाल की नियुक्ति मोदी जी की सरकार नही कर पायी. अगर ४९ दिन की
केजरीवाल की सरकार को देखे तो दिल्ली में उस समय करेप्श्न कम हो गया था. दिल्ली
पुलिस जो देश की सबसे ज्यादा भ्रष्ट पुलिस कही जाती है उस समय किसी से भी घूस लेने
से डरती थी. और कई विभागों में भी करेप्श्न का ग्राफ नीचे आया था जो केजरीवाल के
हटने के साथ ही फिर उसी स्तर पर आ गया है. केजरीवाल को मै नायक फिल्म के हीरो अनिल
कपूर की तरह देखा हूँ जो एक दिन का सीएम बनकर ही सुधार को गति दे देता है. किसी भी
सरकार को करेप्श्न में कमी लाने के लिए छ माह का समय बहुत होता. इतने समय में ख़त्म
तो नही हो सकता लेकिन कम होने की शुरुआत तो हो सकती है लेकिन हालात में तनिक भी
बदलाव नही आया है. मोदी जी पूर्वोत्तर के दौरे में एक कार्यक्रम में कहा था कि
मीडिया को मधुमख्खी की तरह होना चाहिए जो शहद के साथ ही डंक भी मारे, लेकिन मैंने
जहा तक जाना है उन्हें भी डंक मारने वाली मीडिया पसंद नही है. तभी तो अभी हाल में
उन्होंने अपने आवास पर केवल उन मीडिया वालो को बुलाया जो सुबह से शाम तक मोदी जी
का गुणगान करते रहते है. जो मीडिया घराने उन्हें शहद देने के साथ ही डंक भी मारते
है उन्हें मोदी जी ने अपने यहा नही बुलाया गया. क्या कोई भी इसे अच्छी पहल कह सकता
है?
आप सोच रहे होंगे कि इस पत्रकार को ब्लाग लिखने की जरुरत क्यों आन पडी, जब इसके पास लिखने के लिए पहले से एक प्रमुख समाचार पत्र व टेलीविजन है। आपकी सोच ठीक है लेकिन मेरा मानना है कि अपनी ढेर सारी भावनाएं व विचार हम उस समाचार पत्र में नहीं लिख सकते। इसके लिए इण्टरनेट ब्लाग मुझे बेहतर माध्यम लगा। मेरे ब्लाग पर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी साथ ही आपके सुझावों से इसमें बदलाव करने में यूपी के इस बन्दे को सहूलियत होगी।
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मंगलवार, 16 दिसंबर 2014
बुधवार, 14 मई 2014
मार्केटिंग का गुर कोई मोदी से सीखे
सोलहवी लोक सभा का चुनाव
खत्म हो गया. वोटिंग के बाद अब नतीजो का इंतजार है. एग्जिट पोल तो यही कह रहे है
कि नरेंद्र मोदी का प्रधानमन्त्री बनना तय है. एन डी ए को २७२ से ३४० सीट मिलने का
अनुमान एग्जिट पोल लगा रहे है हलाकि यह अलग बात है कि १९९८ को छोड़कर कभी भी एग्जिट
पोल सही साबित नही हुए है. हर बार एग्जिट पोल में चैनल वाले बीजेपी को ज्यादा सीट
देते है और कांग्रेस को कम. जब नतीजे आते है तो होता इसके ठीक उलट है. इस बार भी
ऐसा ही होगा यह मै नही कह सकता लेकिन यह चुनाव एक अलग तरह की मार्केटिंग के लिए
याद किया जायेगा. इस मार्केटिंग के लीडर रहे बीजेपी के पी एम् पद के प्रत्याशी
नरेंद्र दामोदर दास मोदी. मोदी ने इधर करीब दो साल के भीतर खुद की ऐसी मार्केटिंग
की कि भाजपा को उन्हें पी एम पद का उम्मीदवार बनाना पड़ा और जनता को भी उनका समर्थन
करना पड़ा. पार्टी के बड़े नेता उनकी राह में रोड़े अटकाने की कोशिश किये लेकिन कोई
सफल नही हो पाया. अलबत्ता मोदी आगे बढ़ते रहे और विरोध करने वाले नेता पीछे हटते
रहे.
अगर आपको याद हो तो मोदी ने
अपनी खुद की मार्केटिंग कि शुरुआत गुजरात से ही शुरू की. जब एक कार्यक्रम में मोदी
ने एक मुस्लिम धर्म गुरु की तरफ से पहनाई जा रही टोपी को पहनने से मना कर दिया था.
इस एक छोटी सी घटना को पूरे देश की मीडिया में खूब प्रचारित करवाया गया. मोदी ने
खुद को एक हिन्दू नेता के रूप में अपने को पेश करने की कोशिश की. मोदी के इस कदम
की देश भर में चर्चा हुई. गुजरात में चोथी बार चुनाव जीतने के बाद तो मोदी ने
बीजेपी के भीतर खुद को सबसे बड़े नेता के रूप में खुद को प्रस्तुत किया. मोदी ने
अपनी ब्रांडिंग के लिये प्रोफेशनल्स की टीम को किराये पर रखा जो ट्विटर और फेस बुक
पर मोदी को देश के उद्धारक के रूप में पेश किया. यह सब इसलिये किया गया ताकि देश भर
में लोगो का समर्थन मोदी के फेवर में जुटाया जा सके. हुआ भी यही यूथ के बीच मोदी
लोकप्रिय होते चले गए. इस बीच मोदी ने देश भर में विभिन्न संगठनों के बीच जाकर
गुजरात के विकास की तस्वीर को पेश किया और इसे मीडिया में खूब प्रचारित किया गया
ताकि लोगो के जेहन में यह बात बैठ जाय कि मोदी अगर देश के पीएम बनते है तो गुजरात
की तरह ही वह देश का विकास कर सकते है. इस बीच मोदी ने खुद का कद इतना बड़ा कर लिया
कि पार्टी को उन्हें पीएम पद का प्रत्याशी घोषित करना पड़ा. मोदी की शर्त थी कि वह
देश भर में प्रचार तभी करेंगे जब उन्हें पीएम का प्रत्याशी बनाया जायेगा. इसके बाद
तो मोदी ने दिल्ली बीजेपी दफ्तर पर अपना कब्ज़ा जमा लिया. हलाकि मोदी ने अपनी पूरी
मार्केटिंग का केंद्र गाँधी नगर को ही बनाये रखा. मोदी ने टैग लाइन दी अच्छे दिन
आने वाले है. चुनाव प्रचार में नई तकनीक का जमकर प्रयोग किया जो लोगो के बीच
कोतूहल बना. थ्री डी तकनीक के जरिये पहली बार उन्होंने प्रचार किया. मोदी ने खुद
को कभी पिछडो का नेता बताया तो कभी खुद को विकास पुरुष के रूप में मीडिया और जनता
के सामने पेश किया. तीन चरण के चुनावो के बाद मोदी ने अपना एक नया चेहरा मीडिया
फ्रेंड का भी प्रस्तुत किया. सभी चैनलों को बारी बारी से मोदी ने इन्टरव्यू दिया.
यह पहली बार हुआ कि इन्टरव्यू को चैनलों ने कई बार रिपीट दिखाया. मोदी की रैलियों
को दिखाने के लिये बकायदे बीजेपी ने इंतजाम किया था. बीजेपी की तरफ से जारी किये
गये वीडियो को ही चैनलों पर लाइव दिखाया गया. यह सब कुछ मोदी की मार्केटिंग की ही
रणनीति का हिस्सा था. मोदी जो चाहते थे टी वी पर वही दिखाया गया. पूरे चुनाव
कैम्पेन में हर पोस्टर पर अकेले मोदी ही छाये रहे. वह मजबूत सरकार के लिये वोट
मांग रहे थे. वोटरों के बीच मोदी ने कहा वह देश की हर मर्ज की दवा है. उनका यह
दावा लोगो को आकर्षित करने में सफल भी रहा.
सोमवार, 3 मार्च 2014
सहाराश्री से बड़ा देशभक्त शायद ही दूसरा कोई हो
आज की तारीख में सहारा और इस कम्पनी के मुख्य अभिभावक सहाराश्री सुब्रत राय सहारा जी खूब चर्चा में है. सेबी के मनमानेपन की वजह से सहारा का नाम लोगो की जुबान पर है. लोग तरह तरह की चर्चाये कर रहे है लेकिन यह कम लोग जानते होंगे कि सहारा श्री से बड़ा देश भक्त शायद कोई नही है. सहारा देश का इकलोता ऐसा संस्थान है जहा कोई भी मीटिंग प्रारम्भ होने से पहले भारत माता के चित्र पर पुष्प चढ़ाकर दीप जलाया जाता है. सहारा शहर में भारत माता की भव्य मूर्ति स्थापित है. मैंने तो पहली बार सहारा शहर में भारत माता की प्रतिमा को देखा. देश के कई हिस्सों में मेरा जाना हुआ लेकिन कही भी इस तरह की कोई प्रतिमा नही मिली. भारत माता के प्रति इस तरह का सम्मान सहारा श्री की तरफ से प्रस्तुत किया जाना उनके देश प्रेम को ही दर्शाता है. यही नही सहारा में जब कोई मीटिंग होती है, उसका समापन राष्ट्रगान के साथ होता है. मेरी जानकारी में देश में कोई ऐसा संस्थान नही है जहा मीटिंग का समापन राष्ट्रगान से होता हो. देश के ढेर सारे लोग इसी वजह से सहारा से जलन रखते है. सेबी भी कुछ इसी तरह कर रहा है. सेबी को कम्पनी की तरफ से जो ५१२० करोड़ दिया गया है उसे सेबी निवेशको को क्यूँ नही वापस कर रहा है. सेबी को यह भी समझना चाहिये कि कोई भी जमाकर्ता क्यूँ सहारा के किसी दफ्तर या सेबी के पास पैसे मांगने क्यूँ नही जा रहा है. अगर कम्पनी पर किसी का बकाया होता तो लोग सहारा के दफ्तर में तो जाते. सेबी के मनमाने कदम के बाद भी कोई जमाकर्ता सहारा के दफ्तर पर नही जा रहे है. वजह जमाकर्ता को सहारा पर पूरा भरोसा है. वह जानते है कि सहारा के पास उनका धन सुरछित है. सहारा सरकारी नियमो के तहत ही लोगो के पैसे जमा करता है और समय पर वापस करता है. आज भी रोज लोग अपने पैसे जमा करने के साथ ही निकासी भी कर रहे है. सेबी को इस पर भी नजर दौड़ानी चाहिये. सहारा देश की पहली संस्था है जिसने रेलवे के बाद सबसे ज्यादा नौकरी दी है. सहाराश्री को सहारा के कर्तव्य योगियों के साथ ही विभिन्न वर्गों के लोग कलयुग का भगवन मानते है. एक दशक से ज्यादा समय तक सहारा क्रिकेट का प्रायोजन करता रहा. यह सहाराश्री जी के देश प्रेम को ही दर्शाता है.
शनिवार, 1 मार्च 2014
प्राणदायिनी माँ गंगा की काशी में यह दुर्दशा
ऐतिहासिक एवं पौराणिक नगरी
काशी अपनी दो खाशियतो की वजह से पूरी दुनिया के लोगो का आकर्षण का केंद्र आज भी
बनी हुई है. बाबा विश्वनाथ जी का मंदिर और प्राणदायिनी माँ गंगा. लाखो भक्त रोज
बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर में माथा टेकते है लेकिन उनमे से कम ही होंगे जो गंगा
में स्नान करते है. वजह गंगा का मैली और दूषित होना. हिमालय से निकली गंगा मैली
नही है बल्कि रास्ते में लोग कचरा डालकर गंगा को मैली कर रहे है. वाराणसी में माँ
गंगा का तो और भी बुरा हाल है. वाराणसी में वैसे तो छोटे बड़े तीन दर्जन से ज्यादा
घाट है जो अंग्रेजो के ज़माने में रियासतों ने अपने अपने परिवार वालो को गंगा स्नान
के लिये बनवाया था. आज भी घाटो की हालत अच्छी है लेकिन वहा नहाने वाले कम ही नजर
आते है. वाराणसी में मैंने कभी भी गंगा में स्नान नही किया था. इस महाशिवरात्रि पर
बाबा के दर्शन से पहले मैंने विचार किया कि गंगा में डुबकी लगा ली जाय. मै और मेरे
मित्र विवेक श्रीवास्तव निकल पड़े गंगा स्नान के लिये. कई लोगो से पूछताछ के बाद तय
किया गया कि रविदास घाट सबसे अच्छा है वही चलकर स्नान किया जाय. हम लोग रविदास घाट
पर पहुचे तो पता चला कि यहाँ नहाना कचरे में नहाने जैसा है. घाट के बगल में ही
नाले का पानी गंगा जी में बहाया जा रहा था. कुछ लोग घाट पर बैठकर कपडे धुल रहे थे.
उन लोगो ने भी यहा नहाने से मना किया. फिर तय किया गया कि अस्सी घाट पर चलकर नहाया
जाय. गाड़ी से हम लोग सीधे अस्सी घाट पहुचे. वहा पर कुछ लोग अलग अलग टोलियों में
स्नान कर रहे थे. हम लोग भी नहाने की तैयारी कर चुके थे. एक नाव पर खड़े होकर विवेक
गंगा जी में उतरे. गंगा जी में उनके पैर रखते ही नीचे का कचरा (काई) उफनाकर ऊपर
आने लगा. उनके पैर में घुटने तक कचरा भर गया. फटाफट वह पैर को धुलकर नाव पर आये और
बगैर नहाये ही कपडा पहन लिये. माँ गंगा में इस तरह का कचरा देखकर मान दुखी हो गया.
फिर हम लोग नाव से गंगा जी के दुसरे तरफ गये और वहा नहाया गया. उस पर गंगा का
निर्मल जल जो होना चाहिये था वह नही था. फिर भी हम लोग वही स्नान करने के बाद बाबा
विश्वनाथ जी के दर्शन किये. मैंने जब जानकारी की तो पता चला कि कई संगठनों ने गंगा
सफाई के नाम अरबो रूपये सरकार से लिये लेकिन गंगा काशी में जब इतनी गन्दी है तो
बाकी जगह क्या हाल होगा. अस्सी ही नही बल्कि काशी के सभी घाटो का यही हाल है. किसी
घाट पर गंगा नहाने लायक नही रह गई है. जो लोग काशी में इस पार स्नान करते है उनके
मान में यह धारणा रहती है कि गंगा में डुबकी लगाने से पाप कटते है. इस वजह से ही
कचरे के बाद भी लोग उसमे डुबकी लगते है. मैंने संगम में इलाहाबाद के अलावा
हरिद्वार में गंगा जी में कई बार स्नान किया लेकिन कही भी गंगा जी में कचरा नही
मिला. फिर काशी में गंगा जी का यह हाल क्यूँ है? लगता है प्रशासन का ध्यान गंगा व्
घाटो की सफाई पर नही है. सरकार की तरफ से इसके लिये बजट तय है लेकिन कभी इस पर
ध्यान नही दिया जाता है. यह प्राणदायिनी माँ गंगा के लिये ठीक नही है. पिछले लोक
सभा चुनाव की कवरेज के लिये भी मेरा वाराणसी आना हुआ था. कांग्रेस और भाजपा के
अलावा सभी दलों के प्रत्याशियों ने बातचीत में गंगा की दुर्दशा का मुद्दा उठाया
था. मुझे ध्यान है मैंने स्टोरी की हेडिंग लगायी थी कि -जो गंगा की बात करेगा वही
काशी पर राज करेगा. पांच साल का समय गुजर गया लेकिन गंगा जैसी थी वैसी ही है. फिर
सांसदी का चुनाव आ गया और फिर लोग गंगा के नाम पर वोट मांगने का ताना बाना बन रहे
है. देखिये इस बार क्या होता है.
शनिवार, 15 फ़रवरी 2014
केजरीवाल का इस्तीफा लोकपाल के लिये या लोकसभा चुनाव के लिये
करेप्सन को दूर करने का
नारा लेकर राजनीति में आये केजरीवाल अपनी सरकार को ४९ दिन ही चला पाये और उन्होंने
लोकपाल का बहाना लेकर इस्तीफा दे दिये. लोकपाल मुद्दे को लेकर ही वह अन्ना हजारे
से अलग होकर राजनीति में आये थे. यह सही बात है कि लोकपाल केजरीवाल के लिये जीने
और मरने का प्रश्न है लेकिन क्या उन्होंने इस्तीफा लोकपाल को लेकर ही दिया है या
फिर बात कुछ और भी है. इस्तीफे के बाद से ही देश भर में इस पर बहस शुरू हो गई है.
अगर पूरी स्थिति पर नजर डाली जाय तो यह साफ नजर आ रहा है कि केजरीवाल जो कह रहे है
वही हकीकत नही है बल्कि उनकी नजर इस बहाने कही और है. राजनीति के बारे में कहा
जाता है कि यह एक गेम है. केजरीवाल ने भी इस गेम में अपना दाव चला है अब उसमे
कितनी सफलता मिलती है यह उनके भाग्य पर निर्भर है. लोकपाल तो इक बहाना है केजरीवाल
की नजर लोक सभा चुनाव पर है. अगर हम मान भी ले कि केजरीवाल लोकपाल को लाना चाहते
थे तो वह इसे नियम के तहत भी ला सकते थे. तब भाजपा और कांग्रेस की मजबूरी होती उसे
समर्थन की. यही नही इन दोनों पार्टियों ने लोक सभा में मिलकर इसे पास किया ऐसे में
वह दिल्ली में ऐसा किस वजह से नही करती यह समझ से परे है. दरअसल केजरीवाल की नियत
तो शुरू से ही दिल्ली में सरकार बनाने की नही थी लेकिन कांग्रेस ने बिना शर्त
समर्थन देकर उन्हें फंसा दिया. सरकार बनने के बाद से ही उन्हें लग रहा था कि लोक
सभा चुनाव के बाद कांग्रेस उनकी सरकार को गिरा देगी साथ ही चुनावी वायदे भी वह
पूरी नही कर पा रहे थे. इन ४९ दिनों में लगातार उनकी लोकप्रियता में कमी आ रही थी.
यही नही दिल्ली में धरने के बाद से उन्हें मिलने वाला चंदा भी कम हो गया था.
उन्हें लग रहा था कि अगर वह लोक सभा चुनाव तक सरकार में बने रहे तो २०१४ में
उन्हें वह सफलता नही मिल पायेगी जो उन्होंने उम्मीद पाल रखी है. इसी वजह से
केजरीवाल ने लोकपाल को बहाना बनाकर नाटकीय तरीके से इस्तीफा दे दिया. अगर वास्तव
में वह लोकपाल पास करना चाहते तो केजरीवाल बिल को पहले एल जी के पास भेजकर मंजूर
करा सकते थे विधायको को पहले बिल भेज सकते थे, सभी दलों के साथ इस पर बैठक करके आम
सहमती बना सकते थे जिस तरह केंद्र में कांग्रेस और भाजपा ने किया लेकिन केजरीवाल
ने यह सब नही किया. चोरो की तरह चुपके से बिल को विधान सभा में रखने की कोशिश किये
जिसे एल जी ने पहले ही स्पीकर को पत्र लिखकर मन कर दिया था. इससे तो साफ है कि
उनकी नजर सिर्फ और सिर्फ लोक सभा चुनाव पर थी न कि लोकपाल पास करना उनका मकसद था.
इस तरह की ड्रामेबाजी किसी भी सरकार या राजनीतिक दल के लिये ठीक नही है. उसके लिये
तो कत्तई नही जो राजनीति में सुचिता और ईमानदारी को लेकर आये है.
गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014
चुनाव प्रचार में खर्च होने वाला धन काला ही तो है
२०१४ के चुनाव के लिये
राजनीतिक दलों ने अपनी अपनी गोटिया बिछानी शुरू कर दी है. राज्य स्तर पर पहचान
रखने वाली पार्टियों की बात तो अलग है लेकिन दो सबसे बड़ी पार्टियों कांग्रेस और
भाजपा अपनी रैलियों में पानी की तरह पैसा बह रहा है. नरेंद्र मोदी की तो एक-एक
रैली में २५ करोड़ से ज्यादा रूपये खर्च हो रहे है. कोई पार्टी यह बताने को तैयार
नही है कि रैलियों में जो रकम खर्च हो रहे है वह काला है या सफ़ेद? कई चैनलों पर भी
नेताओ से यह सवाल पूछे गये कि राजनीतिक दल इस बारे में अपनी स्थिति सपष्ट करे लेकिन
बहस में बैठने वाले नेता इस मुद्दे पर चुप्पी साध लेते है. कांग्रेस भी राहुल की
रैलियों पर खूब खर्च कर रही है लेकिन इस मामले में वह भाजपा से कमतर पड़ रही है.
भाजपा तो मोदी की रैलियों को हाई टेक तरीके से पेश कर रही है जाहिर है कि इस कार्य
में पैसे भी खूब खर्च हो रहे है. अहमदाबाद से लगायी गई मोदी की चौपाल पर बताते है
कि २० करोड़ रूपये खर्च किये गये. क्या कोई बता सकता है कि इतनी बड़ी रकम सफ़ेद हो
सकती है. जाहिर है कि चुनाव प्रचार में जो भी करोडो रूपये खर्च हो रहे है वह काला
धन ही है. ऐसे में सवाल उठता है कि जो पार्टिया चुनाव में काला धन खर्च कर रही है
वह क्या सत्ता में आने के बाद काला धन को देश से ख़त्म करने के लिये आगे आ सकती है.
मेरा जवाब तो नही में ही होगा और शायद आप सब का भी यही जवाब होगा. इन पार्टियों को
जिस भी कारोबारी घराने से ये पैसे मिल रहे है सरकार बनने के बाद उनके फेवर में सरकार
को काम करना तो मज़बूरी होगी. इस मामले में आप पार्टी की तारीफ करनी होगी कि दिल्ली
विधान सभा चुनाव लड़ने के लिये केजरीवाल ने इन्टरनेट के जरिये चंदा माँगा और कितना
चंदा मिला यह पूरे देश को बताया. कांग्रेस और भाजपा ने अभी तक चंदे के बारे में
देश को कुछ नही बताया है. ऐसे में इनसे एक ईमानदार सरकार की उम्मीद करना बेमानी
है. देश में ईमानदार सरकार के लिये सबसे पहले चुनाव सुधार करना जरुरी है. एक लोक
सभा में प्रत्याशी अगर ५ करोड़ से कम खर्च करता है तो उसे कमजोर प्रत्याशी कहा जाता
है. अभी चुनाव घोषित होने में २० दिन बचे है लेकिन कई दलों के प्रत्यशियो (सपा और
बसपा) ने अब तक करोडो खर्च कर दिए है. जो लोक सभा चुनाव में करोडो अपनी जेब से
खर्च करेगा उससे संसद में जाकर ईमानदारी की उम्मीद करना बेमानी ही होगा. वह तो
सीधे तौर पर पहले अपने खर्च को निकालने की जुगत में जुटेगा फिर अगले चुनाव में होने
वाले खर्च को जुटायेगा. इसके बाद फायदे भी जुटायेगा. आपको क्या लगता है यह सब कुछ
नंबर एक में होगा? नही. यही तो ब्लैक मनी होगी. ये लोग संसद में जाकर काला धन को
ख़त्म करने की क्या पहल करेंगे? देश में ईमानदार राजनीति की शुरुआत चुनाव खर्च को
नियन्त्रित करने से ही होगी. इसके लिये सबसे पहले चुनाव आयोग को काला धन को खर्च
करने पर रोक लगानी होगी.
मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014
आखिर मीडिया काहे पीछे पड़ा है अखिलेश यादव के!
कांग्रेस के बाद उत्तर
प्रदेश में दो ही सरकारे आयी जिन्हें मीडिया फ्रेंडली सरकार कहा जा सकता है.
राजनाथ सिंह की सरकार या फिर मुलायम और अखिलेश यादव की सरकार. अखिलेश यादव की
सरकार से पहले प्रदेश में मायावती की सरकार थी लेकिन मीडिया के लोग रोज उस सरकार
के खिलाफ खबरे नही लिखा या चलाया करते थे. वजह उस सरकार की कार्यशैली से मीडिया भी
भयभीत रहता था. उस समय मीडिया के कई बड़े पत्रकारों को बेइज्जत कर दिया गया लेकिन
पत्रकार पुरे प्रयास के बाद भी कोई कारवाई नही करा सके. कम से कम लखनऊ में आज तो
यह माहौल नही है. हो सकता है मीडिया के लोग आज इस बात को न माने लेकिन हकीकत यही
है. अखिलेश यादव की सरकार बनने के साथ से ही मीडिया उनके पीछे ही पड़ा हुआ है जबकि
मीडिया के लोगो को सर्वाधिक ओबलाईज इसी सरकार ने किया है. मान्यता प्राप्त
पत्रकारों को पी जी आई में मुफ्त ईलाज के अलावा तीन पत्रकारों को सूचना आयुक्त
बनाया. और भी कई सहुलियते इस सरकार ने मीडिया के लोगो को दी. इतना ही नही खुद
नेताजी के अलावा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव किसी भी मुद्दे पर बयान देने के लिये
उपलब्ध रहते है. मै यह नही कह रहा हूँ कि मीडिया भाजपा के फेवर में काम कर रहा है
लेकिन बात कुछ तो है जिस वजह से सपा का माहौल उत्तर प्रदेश में मीडिया खराब कर रहा
है. सोमवार को कानपुर में जिस तरह से एक पत्रकार ने अखिलेश यादव से नरेंद्र मोदी
को लेकर सवाल पूछा उससे कोई भी झल्ला जायेगा. पत्रकार होने का यह कतई मतलब नही है
कि वह पार्टी बनकर सवाल पूछे. कुछ दिन पहले मुजफ्फरनगर में किसी शादी में डांस हो
रहा था एक टीवी चैनल ने उस डांस को वहा हुये दंगे से जोड़कर खबर चला दी. मेरी समझ
में नही आ रहा है कि जहा दंगा हुआ हो वहा पर क्या कोई शादी समारोह नही होगा और
उसमे कोई मंत्री शामिल नही होगा? मीडिया का इस तरह का रोल ठीक नही है. मीडिया के
लोग क्या क्या कर रहे है क्या किसी को पता नही है. सरकार में बैठे लोग उनकी
कारगुजारियो से पूरी तरह वाकिफ होते है. मुजफ्फरनगर दंगे को लेकर ही जिस तरह की
रिपोर्टिंग सामने आयी ऐसा लग रहा था जैसे सरकार ने ही दंगे को कराया हो. इस तरह की
रिपोर्टिंग से मीडिया की साख पर भी असर पड़ रहा है. मीडिया के भाइयो को इस बात को
समझना होगा और अपने में बदलाव लाना होगा तभी उनकी साख वापस लौट पायेगी.
शनिवार, 8 फ़रवरी 2014
UP Ka Banda: कानून से बड़े हो गये है केजरीवाल
UP Ka Banda: कानून से बड़े हो गये है केजरीवाल: देश में करेप्सन और व्यवस्था के खिलाफ केजरीवाल का आन्दोलन पहला नही है, इससे पहले भी कई लोग इस तरह का आन्दोलन कर चुके है. चाहे जयप्रकाश का आ...
कानून से बड़े हो गये है केजरीवाल
देश में करेप्सन और
व्यवस्था के खिलाफ केजरीवाल का आन्दोलन पहला नही है, इससे पहले भी कई लोग इस तरह
का आन्दोलन कर चुके है. चाहे जयप्रकाश का आन्दोलन रहा हो या विश्वनाथ प्रताप सिंह
का. देश के लोगो ने बड़ी तादात में इन आंदोलनों में हिस्सा लिया था कुछ लोग कटघरे
में भी खड़े किये गये लेकिन उनके खिलाफ हुआ कुछ भी नही. जयप्रकाश जी के आन्दोलन से
कांग्रेस सरकार गिर गई और जनता पार्टी की सरकार बनी लेकिन वह चल नही पायी. लगता था
कि जयप्रकाश जी देश की तक़दीर बदल देंगे लेकिन देश को क्या मिला सब जानते है. यह
जरुर हुआ कि उनका नाम इतिहास के पन्ने में दर्ज हो गया जो वह आई ए एस की नौकरी
करके नही दर्ज करा पाते. वी पी सिंह के मामले में भी यही हुआ. कथित तौर पर बोफोर्स
घोटाले का विरोध करते हुये कांग्रेस सरकार से अलग हुये श्री सिंह ने पुरे देश इस
घोटाले को लेकर हो हल्ला किया और कांग्रेस की सरकार को गिराकर खुद प्रधानमंत्री बन
गये लेकिन देश को क्या मिला? जातिवाद का जहर जरुर बो दिया. बोफोर्स में दलाली हुई
इसे वह पी एम् रहते हुये भी नही साबित करा पाये. कुछ यही हाल मेरी नजर में
केजरीवाल के आन्दोलन का भी है. दिल्ली की सत्ता क्या मिली उन्हें इस पर संतोष नही
है. उनकी नजर पी एम् की कुर्शी पर है तभी तो सी एम् बनने के बाद भी रोज सडक पर नजर
आ रहे है. उनकी पार्टी के नेता टीवी चैनलों पर दबंगो की तरह नजर आते है और कहते है
कि हम गांधीवादी है. ताजा विवाद लोकपाल बिल पास करने को लेकर है. कानून कहता है कि
बिल को पहले केन्द्रीय गृह मंत्रालय को भेजना होगा तब ही विधान सभा में रखा जा
सकता है. आप सबको पता है कि दिल्ली स्टेट को पूर्ण राज्य का दर्जा नही है. ऐसे में
अगर यह नियम है तो केजरीवाल उसका पालन क्यूँ नही करेंगे? कांग्रेस और भाजपा समेत
सभी पार्टिया उस नियम को मानती रही है फिर आप को क्या दिक्कत है? क्या केजरीवाल ने
अपने को देश और संविधान से ऊपर मान लिया है? दिल्ली के लोगो की रोजमर्रा की
दिक्कतों को साल्व करने की बजाय वह रोज नई प्राब्लम खड़ी करके देश के लोगो का ध्यान
अपनी तरफ खीचने में ही लगे है. देश की जनता कितनी भोली है वह इस तरह के लोगो की
बातो में आ जाते है. केजरीवाल को सिर्फ अपनी और अपनी पार्टी की चिंता है उन्हें
लगता है कि लोक सभा चुनाव तक अगर उनकी पार्टी के लोग इसी तरह हो हल्ला मचाते रहे
तो दिल्ली की ही तरह ही देश भर से २५-३० सीट जीत जायेंगे. वैसे मुझे लगता नही है
कि उनका यह सपना सच हो पायेगा. दिल्ली की सरकार बनने के बाद से ही केजरीवाल का
ग्राफ पुरे देश में लगातार नीचे गिरता जा रहा है अगर इसी तरह संविधान का मजाक वह
उड़ाते रहे तो आगे उनकी हालत और भी ख़राब होती चली जायेगी. कानून के जानकर कह रहे है
कि लोकपाल को विधान सभा में पेश करने का तरीका उनका गलत है लेकिन वह मानने को
तैयार नही है. यह किसी भी मुख्यमंत्री के लिये ठीक नही है.
शुक्रवार, 31 जनवरी 2014
सब राजनीति ही कर रहे है सिख दंगो पर
आखिर देश के लोगो की भावनाओ
के साथ ये राजनीतिक दल कब तक खिलवाड़ करके वोट लेकर शासन करते रहेंगे? देश के लोगो
को राजनीतिक दलों की इस तरह की मंशा क्यूँ समझ में नही आ रही है? मुजफरनगर में
हुये दंगे की आग अभी शांत भी नही हुई थी कि अब ८४ के दंगो का जिन्न बाहर आ गया. इस
जिन्न को किसी सिख समुदाय के लोगो ने नही निकाला बल्कि राहुल गाँधी और अरविन्द
केजरीवाल ने. राहुल ने यह कहकर सिखों की दुखती रग को छुआ कि इन दंगो में कुछ
कांग्रेसी नेताओ के भी हाथ थे. राहुल को लगा कि उनके इस तरह के जवाब से सिख समुदाय
की सिम्पैथी कांग्रेस के साथ होगी लेकिन हुआ इसके ठीक उलट, समुदाय के लोग भड़क गये
और उस कांग्रेसी का नाम पूछने लगे जिसकी तरफ राहुल ने इशारा किया था. अब राहुल और
कांग्रेस के लिए यह नई मुश्किल खड़ी हो गई जिसने दस साल तक इक सिख को प्रधानमंत्री
बनाये रखा. देश में सिखों की आबादी करीब १.९ फीसद है. पंजाब के अलावा दिल्ली की कई
सीटो पर वह निर्णायक की भूमिका में होते है. इसी बीच आम आदमी पार्टी के सी एम्
अरविन्द केजरीवाल ने सिख दंगो के लिये नए सिरे से एस आई टी बनाकर जाँच करने की
मांग लेफ्टिनेंट गवर्नर से कर दी. केजरीवाल की नजर सिख समुदाय के देश भर के वोटो
पर है जिसे वह इस तीर के जरिये २०१४ के चुनाव में हासिल करना चाहते है. सिखों का
कहना है कि उन्हें दिल्ली में हुये कत्लेआम में इंसाफ नही मिला. जबकि इस दंगे की
जाँच के लिए ६ से ज्यादा कमीशन बन चुके है. कोर्ट में अभी यह मामला चल रहा है
लेकिन सजा किसी को नही हुई. मेरा सवाल है कि क्या सज्जन कुमार को सजा हो जाय तो मान
लिया जायेगा कि इंसाफ मिल गया? मेरा साफ मानना है कि दोषी कोई भी हो कितना भी
ताकतवर हो लेकिन उसे दंड मिलना चाहिये लेकिन अपने देश की नयायपालिका की कच्छप
रफ़्तार के बारे में तो सभी जानते है. न्याय मांगने वाला स्वर्ग सिधार जाता है
लेकिन न्याय नही मिलता. जैसे सब मामलो में होता है वैसा ही इस प्रकरण में भी हो
रहा है लेकिन क्या फिर से इक जाँच से सिखों को इंसाफ मिल सकेगा? कोई कानून का जानकार
बोलेगा नही. एस आई टी तो जाँच एजेंसी होगी फिर सजा के लिए उसे कोर्ट ही जाना होगा.
कोर्ट की रफ़्तार का सबको पता है. यहा कानूनी द्रष्टि से अगर देखा जाय तो एस आई टी
को ३० साल बाद उस घटना में क्या सबूत मिलेगा? घटनास्थल का भी सही तरीके से आकलन
नही कर पाएगी जाँच एजेंसी. मै यह जानता हूँ कि केजरीवाल को सिखों से कोई हमदर्दी
नही है बल्कि उन्हें सिखों की भावनाओ को कुरेदकर महज २०१४ में वोट लेना है. अगर
हमदर्दी थी तो उन्होंने इसके लिए पहले कभी आन्दोलन क्यों नही किया? केजरीवाल जानते
है कि इस जाँच का आदेश वह नही दे सकते है इस वजह से मुद्दा उठाकर टी वी चैनलों पर
इक नई तरह की बहस जरुर शुरू करा दी है. मेरी जानकारी में आया है कि केजरीवाल ने
चुनाव के दौरान बाटला हाउस कांड की भी नए सिरे से जाँच कराने को कहा था. उनके इस
तरह के कृत्य से समझा जा सकता है कि केजरीवाल वोट के लिये आतंकियों की भी पैरवी कर
सकते है. केजरीवाल से देश के लोगो को कुछ उम्मीदे थी लेकिन वह सत्ता पाने की और भी
जल्दी में है. ऐसे में लगता है कि वह कांग्रेस और भाजपा से भी खतरनाक है.
रविवार, 19 जनवरी 2014
आखिर शक की बुनियाद पर कब जान देती रहेंगी महिलाये
शशि थरूर की
तीसरी पत्नी सुनंदा
पुष्कर की संदिग्ध
हालत में मौत
हो गई. यह
कोई पहला मामला
नही है जिसमे
पति पत्नी और
वो (दोस्त) के
बीच किसी महिला
ने जान दी
है. अब
तक इस तरह
के लाखो मामले
प्रकाश में आ
चुके है. सोशल
संगठन चलने वाले
कई शोध कर
चुके है लेकिन
इस तरह के
मामलो का कोई
हल नही निकल
रहा है. समाज
का हर वर्ग
यह पीड़ा झेल
रहा रही है.
शक की बुनियाद
पर ही यह
मौते होती है.
यहा मेरा एक
सवाल है कि
क्या कोई महिला
और पुरुष महज
दोस्त नही हो
सकते है? अगर
उनमे दोस्ती होती
है उसका सेक्स
तक जाना जरुरी
है? मुझे लगता
है कि इस
तरह की सोच
सही नही है.
जिस तरह से
दो पुरुषो के
बीच गहरी दोस्ती
होती है उसी
तरह से किसी
महिला और पुरुष
के बीच भी
सिर्फ गहरी दोस्ती
हो सकती है
और उसकी मिसाले
भी दी जा
सकती है. कृष्ण
और राधा की
दोस्ती और प्रेम
की आज भी
मिसाले दी जाती
है और आगे
भी दी जाती
रहेगी। क्या राधा
और कृष्ण के
प्रेम या दोस्ती
की वजह से
कृष्ण और उनकी
धर्म पत्नी रुक्मणि
के बीच कभी
कोई विवाद उत्पन्न
हुआ? जवाब मिलेगा
नही फिर आज
शक की वजह
से लोग अपनी
जान क्यूँ दे
रहे है? हमारी
देश की नारी
शक्ति को यह
समझना होगा कि
अगर उनके पति
का किसी और
महिला से गलत
सम्बन्ध भी है
तो भी अपनी
जान देने की
बजाय उस स्थिति
से डटकर मुकाबला
करना चाहिए। सुनंदा
पुष्कर की यह
तीसरी शादी थी.
उनकी दो शादिया
भी शायद गलत
संबंधो कि वजह
से टूटी होगी।
चाहे यह सम्बन्ध
पहले सुनंदा ने
कायम किये हो
या फिर उनके
उस पति ने.
सुनंदा को तो
इसका अच्छा अनुभव
था फिर वह
डिप्रेसन में किस
वजह से चली
गई समझ में
नही आ रहा
है. सुनंदा पुष्कर
को इस मामले
डटकर मुकाबला करना
चाहिए था. अगर
उन्हें पता चल
गया था कि
उनके पति शशि
थरूर की पाकिस्तानी
पत्रकार मेहर से
दोस्ती है तो
सुनंदा को पहले
यह देखना चाहिए
था कि इस
दोस्ती से kya शशि थरूर
का उनके प्रति
प्यार कुछ कम
हो रहा था?
मुझे लगता है
कि जिस तरह
से थरूर सुनंदा
की मौत को
लेकर दुखी नजर
आये उससे तो
नही लगता कि
उनके सुनंदा के
साथ प्रेम में
कोई कमी आयी
रही होगी। महिलाओ
में अपने पति
और प्रेमी के
किसी गैर महिला
के साथ दोस्ती
को लेकर जो
शक पैदा होता
है वह निहायत
ही खतरनाक है.
हर घर में
शायद इस तरह
का शक हर
दम्पति के जीवन
में इक दो
बार जरुर आता
है. कई घर
इसी शक के
बिना पर टूट
जाते है लेकिन
कई के घर
नही टूटते है.
मेरी सोच
है कि भारत
में भी जापान
का कल्चर लागू
होना चाहिए। जिस तरह
जापान में हर महिला को छूट है की वह अपने पति के अलावा किसी अन्य पुरुष को प्रेमी या
दोस्त बना सकती है उसी तरह यहा भी होना चाहिए। जापान की महिलाये अपने पति की खूब सेवा
करती है. शायद भारत की महिलाये भी अपने पति
की इतनी सेवा न करती हो. मेरे एक पत्रकार साथी
ने अपने जापान के दौरे का यात्रा वृतांत सुनते हुये जानकारी दी थी कि जापान
की पत्निया अपने पति की भारत की पत्नियों से ज्यादा सेवा करती है. बल्कि वह मित्र तो
जापान की महिलाओ से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने अपने बेटे को जापानी बहू लाने को
कहे.
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