करेप्सन को दूर करने का
नारा लेकर राजनीति में आये केजरीवाल अपनी सरकार को ४९ दिन ही चला पाये और उन्होंने
लोकपाल का बहाना लेकर इस्तीफा दे दिये. लोकपाल मुद्दे को लेकर ही वह अन्ना हजारे
से अलग होकर राजनीति में आये थे. यह सही बात है कि लोकपाल केजरीवाल के लिये जीने
और मरने का प्रश्न है लेकिन क्या उन्होंने इस्तीफा लोकपाल को लेकर ही दिया है या
फिर बात कुछ और भी है. इस्तीफे के बाद से ही देश भर में इस पर बहस शुरू हो गई है.
अगर पूरी स्थिति पर नजर डाली जाय तो यह साफ नजर आ रहा है कि केजरीवाल जो कह रहे है
वही हकीकत नही है बल्कि उनकी नजर इस बहाने कही और है. राजनीति के बारे में कहा
जाता है कि यह एक गेम है. केजरीवाल ने भी इस गेम में अपना दाव चला है अब उसमे
कितनी सफलता मिलती है यह उनके भाग्य पर निर्भर है. लोकपाल तो इक बहाना है केजरीवाल
की नजर लोक सभा चुनाव पर है. अगर हम मान भी ले कि केजरीवाल लोकपाल को लाना चाहते
थे तो वह इसे नियम के तहत भी ला सकते थे. तब भाजपा और कांग्रेस की मजबूरी होती उसे
समर्थन की. यही नही इन दोनों पार्टियों ने लोक सभा में मिलकर इसे पास किया ऐसे में
वह दिल्ली में ऐसा किस वजह से नही करती यह समझ से परे है. दरअसल केजरीवाल की नियत
तो शुरू से ही दिल्ली में सरकार बनाने की नही थी लेकिन कांग्रेस ने बिना शर्त
समर्थन देकर उन्हें फंसा दिया. सरकार बनने के बाद से ही उन्हें लग रहा था कि लोक
सभा चुनाव के बाद कांग्रेस उनकी सरकार को गिरा देगी साथ ही चुनावी वायदे भी वह
पूरी नही कर पा रहे थे. इन ४९ दिनों में लगातार उनकी लोकप्रियता में कमी आ रही थी.
यही नही दिल्ली में धरने के बाद से उन्हें मिलने वाला चंदा भी कम हो गया था.
उन्हें लग रहा था कि अगर वह लोक सभा चुनाव तक सरकार में बने रहे तो २०१४ में
उन्हें वह सफलता नही मिल पायेगी जो उन्होंने उम्मीद पाल रखी है. इसी वजह से
केजरीवाल ने लोकपाल को बहाना बनाकर नाटकीय तरीके से इस्तीफा दे दिया. अगर वास्तव
में वह लोकपाल पास करना चाहते तो केजरीवाल बिल को पहले एल जी के पास भेजकर मंजूर
करा सकते थे विधायको को पहले बिल भेज सकते थे, सभी दलों के साथ इस पर बैठक करके आम
सहमती बना सकते थे जिस तरह केंद्र में कांग्रेस और भाजपा ने किया लेकिन केजरीवाल
ने यह सब नही किया. चोरो की तरह चुपके से बिल को विधान सभा में रखने की कोशिश किये
जिसे एल जी ने पहले ही स्पीकर को पत्र लिखकर मन कर दिया था. इससे तो साफ है कि
उनकी नजर सिर्फ और सिर्फ लोक सभा चुनाव पर थी न कि लोकपाल पास करना उनका मकसद था.
इस तरह की ड्रामेबाजी किसी भी सरकार या राजनीतिक दल के लिये ठीक नही है. उसके लिये
तो कत्तई नही जो राजनीति में सुचिता और ईमानदारी को लेकर आये है.
आप सोच रहे होंगे कि इस पत्रकार को ब्लाग लिखने की जरुरत क्यों आन पडी, जब इसके पास लिखने के लिए पहले से एक प्रमुख समाचार पत्र व टेलीविजन है। आपकी सोच ठीक है लेकिन मेरा मानना है कि अपनी ढेर सारी भावनाएं व विचार हम उस समाचार पत्र में नहीं लिख सकते। इसके लिए इण्टरनेट ब्लाग मुझे बेहतर माध्यम लगा। मेरे ब्लाग पर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी साथ ही आपके सुझावों से इसमें बदलाव करने में यूपी के इस बन्दे को सहूलियत होगी।
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आप ने सही लिखा है मित्र पर ये उम्मीद नही थी कि ये गुब्बारा इतनी जल्दी पिचक जाएगा। असलियत की सबको खबर है काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती।
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