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मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

केजरीवाल वर्सेज मोदी




दिल्ली में विधान सभा चुनाव को लेकर कई टीवी चैनलों पर जब कभी बहस चलती है तो उसे केजरीवाल वर्सेज नरेंद्र मोदी बनाकर प्रस्तुत किया जाता है. पैनल में शामिल लोग भी इस पर ऐतराज कर चुके है लेकिन फिर भी इस तरह की बहस जारी है. बहस को देखकर लगता है जैसे मोदी जी को दिल्ली का सी एम बनना है. मैंने कभी केजरीवाल का समर्थन नही किया लेकिन अगर उनके दिल्ली में उनके ४९ दिन की सरकार से केंद्र में चल रही मोदी जी की सरकार की तुलना की जाय तो केजरीवाल की सरकार को हर कोई बेहतर बतायेगा. छ माह से ज्यादा मोदी जी की सरकार को हो गया लेकिन क्या कोई कह सकता है कि देश में करेप्श्न तनिक भी कम हुआ. छ माह बाद भी देश के लोकपाल की नियुक्ति मोदी जी की सरकार नही कर पायी. अगर ४९ दिन की केजरीवाल की सरकार को देखे तो दिल्ली में उस समय करेप्श्न कम हो गया था. दिल्ली पुलिस जो देश की सबसे ज्यादा भ्रष्ट पुलिस कही जाती है उस समय किसी से भी घूस लेने से डरती थी. और कई विभागों में भी करेप्श्न का ग्राफ नीचे आया था जो केजरीवाल के हटने के साथ ही फिर उसी स्तर पर आ गया है. केजरीवाल को मै नायक फिल्म के हीरो अनिल कपूर की तरह देखा हूँ जो एक दिन का सीएम बनकर ही सुधार को गति दे देता है. किसी भी सरकार को करेप्श्न में कमी लाने के लिए छ माह का समय बहुत होता. इतने समय में ख़त्म तो नही हो सकता लेकिन कम होने की शुरुआत तो हो सकती है लेकिन हालात में तनिक भी बदलाव नही आया है. मोदी जी पूर्वोत्तर के दौरे में एक कार्यक्रम में कहा था कि मीडिया को मधुमख्खी की तरह होना चाहिए जो शहद के साथ ही डंक भी मारे, लेकिन मैंने जहा तक जाना है उन्हें भी डंक मारने वाली मीडिया पसंद नही है. तभी तो अभी हाल में उन्होंने अपने आवास पर केवल उन मीडिया वालो को बुलाया जो सुबह से शाम तक मोदी जी का गुणगान करते रहते है. जो मीडिया घराने उन्हें शहद देने के साथ ही डंक भी मारते है उन्हें मोदी जी ने अपने यहा नही बुलाया गया. क्या कोई भी इसे अच्छी पहल कह सकता है?